Saturday 8 July 2017

गुरु पूर्णिमापर्व' शिष्य को आत्मवत कराने का दिन, सृष्टि के आरम्भ से ही शुरू हुई गुरु-शिष्य की परंपरा..
वर्तमान श्रीश्वेतवाराह कल्प में ब्रह्म के विग्रह रूप श्रीपरमेश्वर ने नारायण का 'विष्णु' रूप में नामकरण किया और उन्हें 'ॐ'कार रूपी महामंत्र का जप करने की आज्ञा दी | श्रीविष्णु हज़ारों वर्षतक घोर तपस्या किये, तत्पश्च्यात परमेश्वर प्रसन्न होकर उन्हें सृष्टि की उत्पत्ति, पालन एवं संहार करने पूर्णता प्रदान की | श्रीविष्णु के कमलनाल से ब्रह्मा की उतपत्ति हुई, ब्रह्मा का अन्तःकरण भी मोहरूपी अज्ञानता के कारण भटकने लगा और उनके मन में परमेश्वर की सत्ता के प्रति तरह-तरह आशंकाएं जन्म लेने लगीं | वे उन परमेश्वर की सत्ता को अपनी ही सत्ता समझने लगे | ब्रह्मा को अज्ञानता से मुक्त करने के लिए परमेश्वर ने अपने हृदय से योगियों के परमसूक्ष्मतत्व श्रीरूद्र को प्रकट किया जिन्होंने ब्रह्मा के अंतर्मन को विशुद्ध करने के लिए 'ॐ नमः शियाय' मंत्र का जप करने की आज्ञा दी | जिसके फलस्वरूप ब्रह्मा का मोहरूपी अन्धकार दूर हुआ तभी से गुरु शिष्य परम्परा आरम्भ हुई | उसके बाद ब्रह्मा के पुत्र गुरु 'वशिष्ट' सूर्यवंश के गुरु हुए, अग्नि के अंश बृहस्पति देवताओं के गुरु हुए ! भृगु पुत्र शुक्राचार्य दैत्यों के और महर्षि गर्ग यदुवंशियों के गुरु हुए | अतः प्रत्येक युग में गुरु की सत्ता परमब्रह्म की तरह कण-कणमें व्याप्त रही है ! गुरु विहीन संसार अज्ञानता की कालरात्रि मात्र ही है ! गुरु-शिष्य का सम्बन्ध केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिए ही होता है गुरु की महिमा वास्तवमेँ शिष्य की दृष्टि से है, गुरुकी दृष्टि से नहीँ | एक गुरु की दृष्टि होती है, एक शिष्य की दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमी की दृष्टि होती है ! गुरु की दृष्टि यह होती है कि मैँने कुछ नहीँ किया, प्रत्युत जो स्वतः-स्वाभाविक वास्तविक तत्व है, उसकी तरफ शिष्य की दृष्टि करा दी ! तात्पर्य यह कि मैँने उसी के स्वरुप का उसीको बोध कराया है, अपने पास से उसको कुछ दिया ही नहीँ | शिष्य की दृष्टि यह होती है कि गुरु ने मुझे सब कुछ दे दिया ! जो कुछ हुआ है, सब गुरु की कृपा से ही हुआ है ! तीसरे आदमी की दृष्टि यह होती है कि शिष्य की श्रद्धा से ही उसको ज्ञान हुआ है | किन्तु असली महिमा उस गुरु की ही है, जिसने शिष्य को परमात्मा से मिला दिया है | गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ''गुरु बिन भवनिधि तरई न कोई | जो बिरंचि संकर सम होई || अर्थात- गुरु की कृपा प्राप्ति के बगैर जीव संसार सागर से मुक्त नहीं हो सकता चाहे वह ब्रह्मा और शंकर के समान ही क्यों न हो | शास्त्रों में 'गु' का अर्थ अंधकार या मूल अज्ञान, और 'रु' का अर्थ उसका निरोधक, 'प्रकाश' बताया गया है | गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन से निवारण कर देता है, अर्थात अंधकार से हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाला 'गुरु' ही है | गुरु तथा देवता में समानता के लिए कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी | 'तमसो मा ज्योतिगर्मय' अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुता है |
गुरु स्तोत्रम्
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्। 
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरु: साक्षात्परब्रह्म: तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
चिन्मयं व्यापियत्सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजित पदाम्बुज:। वेदान्ताम्बुजसूर्यो य: तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
चैतन्य: शाश्वत:शान्तो व्योमातीतो निरंजन:। बिन्दुनाद: कलातीत: तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
ज्ञानशक्तिसमारूढ: तत्त्वमालाविभूषित:। भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने। आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
शोषणं भवसिन्धोश्च ज्ञापणं सारसंपद:। गुरो: पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तप:। तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
मन्नाथ: श्रीजगन्नाथ: मद्गुरु: श्रीजगद्गुरु:। मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
गुरुरादिरनादिश्च गुरु: परमदैवतम्। गुरो: परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव॥ पं जयगोविन्द शास्त्री